भगवति का आविर्भाव काल
भगवती बगलामुखी का आविर्भाव-काल वीर रात्रि की चतुर्थ संध्या है।
चतुर्दशी भौमयुता मकारेण समन्विता ।
कुलऋक्षसमायुक्ता वीररात्रिः प्रकीर्तिता ।।
मंगलवार के दिन चतुर्दशी की तिथि के समय मकार सहित कुल नक्षत्रों का योग होने पर जो रात्रि विद्यमान होती है उसे वीर रात्रि कहते हैं। इन्हीं योगों से युक्त अर्द्धरात्रि के समय भगवती बगलामुखी का आविर्भाव हुआ।
आविर्भाव का उद्देश्य
स्वतंत्र तंत्र के अनुसार सत्ययुग (कृतयुग) में समस्त विश्व को विनष्ट कर देने वाला एक भीषण वात्याचक्र (तूफान) उत्पन्न हुआ था। जिससे पृथ्वी में ही नहीं वरन समस्त चराचर जगत में त्राहि त्राहि मच गई। उस भीषण वायु प्रकोप ने स्वयं भगवान विष्णु को भी स्तंभित एवं चिंतित कर डाला था। भगवान विष्णु भी उसे शांत न कर सके। उस वायु तांडव को शांत करने के लिए भगवान विष्णु सौराष्ट्र में स्थित हरिद्रा नामक झील के निकट शानत्यार्थ कठोर तपस्या करने लगे।
भगवान नारायण की तपस्या से भगवती महात्रिपुरसुंदरी प्रसन्न हुई। भगवान विष्णु ने हरिद्रा झील के निकट क्रीडापरायणा भगवती महात्रिपुरसुंदरी को देखा। जल क्रीड़ा क्रिया के कारण उनकी श्री विद्या से एक लोकोत्तर एवं अभूतपूर्व महातेज आविर्भूत होकर चतुर्दिक फैल गया। उसी क्षण भगवती महात्रिपुरसुंदरी के हृदय से एक विलक्षण तेज का आविर्भाव हुआ। यह महातेज ही भगवती पीतांबरा देवी के स्वरूप में परिणत हो गया। भगवतीत्रिपुरसुंदरी से प्रकट भगवती पितांबरा देवी के उग्र महातेज ने भीषण वायु तांडव क्रीड़ा को शांत कर दिया जिसके फलस्वरूप विश्व की रक्षा हो सकी। चराचर-विनाशी वात क्षोभ का निवारण तथा राक्षसों पर विजय ही बगलामुखी के आविर्भाव का उद्देश्य है। चाहे देवासुर संग्राम हो चाहे पाण्डवों तथा कौरवों का कुरुक्षेत्र संग्राम सभी का सम्बन्ध इस वात क्षोभसे है। इस क्षोभ के निवारण का मुख्य उपाय यही ब्रह्मास्त्रविद्या है।
'परास्य शक्ति विर्विविधैव श्रूयते, स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च'
पराशक्ति भगवती बगलामुखी की शक्ति कई प्रकार की मान्य है। उनका ज्ञान, बल, और क्रियाएं स्वतः होती है। कभी स्वातंर्त्य शक्ति के रूप में, कभी विमर्श शक्ति के रूप में, कहीं मां भुवनेश्वरी के रूप में कहीं महात्रिपुरसुंदरी के रूप में, कहीं मां कालिका के रूप में तो कहीं मां भगवती बगलामुखी के रूप में प्रकट हुई। मां बगलामुखी अमृत- में सागर के मध्य में स्थित मणिमंडप में रत्नवेदी पर रत्नजड़ित सुसज्जित सिंहासन पर विराजित हैं। पीतवर्णा होने के कारण इन्हें पीतांबरा देवी भी कहा जाता है। यह वसमहाविद्या में आठवीं महाविद्या है। यह पीले रंग के वस्त्र, माला एवं आभूषण धारण किए हुए हैं। इनके एक हाथ में शत्रु की जिल्ह्या और दूसरे हाथ में मुद्रगर है। व्यष्टि रूप में शत्रुओं का नाश करने वाली और समष्टि रूप में परम ईश्वर की संहार- इच्छा की अधिष्ठात्री शक्ति बगला है।
मां भगवती बगलामुखी का स्वरूप
मां भगवती बगलामुखी सिद्ध साधकों को चार स्वरूपों में अपनी दिव्य अनुभूति प्रदान करती है।
प्रथम स्वरूप : वैदिक एवं औपनिषदिक स्वरूप। यजुर्वेदीय ‘वलगहन’ स्वरूप (यजु.५/२३)। पिताम्बरोपनिषद् एवं बगलाउपनिषद में अभिव्यक्त भगवती का ‘वलगहा’ स्वरूप।
द्वितीय स्वरूप : भगवती महामाया सती के क्रोध आवेश से उत्पन्न 10 महाविद्याओं में से एक स्वरूप बगलामुखी स्वरूप।
तृतीय स्वरूप : महाराष्ट्र के हरिद्रा सरोवर में प्रकट स्वरूप। भगवान विष्णु की तपस्या के फल स्वरुपप्रकट महात्रिपुर सुंदरी के हृदय के तेज से निःसृत स्वरूप।
चतुर्थ स्वरूप: परात्पर ब्रह्मस्वरूप। सर्वशक्त्यात्मक एवं सर्वशक्तिस्वरूप।
पराशक्ति का स्वरूप।
मां भगवती बगलामुखी अनन्त शक्ति स्वरूपा हैं। यही ज्ञानशक्ति, यही क्रिया शक्ति, यही मायाशक्ति एवं यही शाम्भवी शक्ति है।
भगवती मां बगलामुखी १. सत्वगुण स्वभाव होने पर ज्ञान शक्ति है। २. रजोगुण स्वभाव होने पर : क्रिया शक्ति है। ३. तमोगुण स्वभाव होने पर : माया शक्ति है।
४. विभाग-विभक्त होने पर प्रकृति शक्ति है। ५. अविभक्त एक रस रहने पर :
शाम्भवी शक्ति है।
भगवती बगलामुखी दक्षिणाम्नाय एवं उत्तराम्नाय दोनों की उपास्या देवी है। श्री बगला महाविद्या ‘श्री कुल’ से संबंधित है। इनकी उपासना वाम मार्ग एवं दक्षिण मार्ग दोनों में स्वीकृत है। मां भगवती बगलामुखी की विद्या ब्रह्मास्त्र विद्या है। इस ब्रह्मास्त्र विद्या का उपयोग अनेक महत्वपूर्ण प्रयोजन के प्रत्यर्थ किया जाता है। जिसमें निम्न षटकर्मों हेतु विशेष प्रयोग होता है।
'शान्ति वश्यस्तम्भनानि विद्वेषोच्चाटने तथा ।।
मारणानि प्रशंसन्ति षट् कर्माणि मनीषिणः' ।।
शांतिक प्रयोग : वह प्रयोग जो विश्व के कल्याण एवं शांति के लिए किया जाता है।
वशीकरण प्रयोग : जीवो को अपने वशीभूत करने के लिए।
स्तंभन प्रयोग: जीवो की प्रवृत्तियों को रोक देना स्तंभन कहलाता है।
विद्वेषण प्रयोग : मित्रता का अत्यधिक नाश विद्वेषण कहलाता है।
उच्चाटन प्रयोग : भ्रांति वश स्थान, देश का परित्याग करना ।
मारण प्रयोग : प्राणियों के प्राणों का हरण करना।
साधकों के लिए स्पष्ट निर्देश है की प्राणों के संकट में भी मारण का प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि मारण प्रयोग से इसी लोक में नरक भोगना पड़ता है।
ॐ ह्रीं बगलामुखी सर्व दुष्टानाम वाचं मुखं पदं
स्तम्भय जिह्वां कीलय बुद्धि विनाशय ह्रीं ॐ स्वाहा'
मंत्रजप द्वारा मा भगवती बगलामुखी से विपत्ति निवारण हेतु प्रार्थना करनी चाहिए एवं भगवती की षोडशोपचार पूजा करनी चाहिए। साधकों को यह ध्यान रखना चाहिए कि आध्यात्मिक साधना का मूल उद्देश्य आत्मोन्नति, निःश्रेयस्, एवं विश्वकल्याण है। इस महाविद्या का प्रयोग परपीड़ा के लिए कदापि नहीं किया जाना चाहिए।
गुरु तत्व
गुरु तत्व
निमिषार्धपाताद् वा यद् वापादावलोकनात्।
स्वात्मानांस्थिरमाधत्तेतस्मै श्रीगुरुवेनमः ।।
जो शिष्य को केवल निमिष के लेशमात्र से ही शक्तिपात के द्वारा अथवा करुणापूर्वक अवलोकन कर आत्मस्वरूप -परमपद में अधिष्ठित कर देता है, उस गुरु को नमस्कार है।
गुरु की कृपा से ही अध्यात्ममार्ग प्रशस्त होता है। गुरु की करुणा के बिना सिद्धियों को प्राप्त करना असंभव होता है।
गुरु का महत्वरू गुरु के बिना किसी भी साधक को अध्यात्म जगत में प्रवेश की पात्रता ही नहीं है-
'गुरु विना यतस्तन्त्रे नाधिकारः कथञ्चन।
अतः एव महेशानि गुरुः कर्तव्य उत्तमः' ।।
जो भी साधक बिना गुरु धारण किए ग्रंथों अथवा पुस्तकों का अध्ययन करके जप / अध्यात्म साधना करते हैं वे पाप का संचय करते है-
गुरुं विना यस्तु मूढ़ः पुस्तकादिविलोकनात् ।
जपबन्धं समाप्नोति किल्विषं परमेश्वरि' ।।
मनुष्य जब गुरु धारण करता है तब उसकी काया अशुद्ध एवं असंस्कृत रहती है, तब गुरु शिष्य की काया का शुद्धिकरण, मन्त्र / शक्तिपात दीक्षा प्रदान कर अपने तप के प्रभाव से सुसंस्कृत एवं साधना पथ के योग्य तैयार करता है।
भगवती मां बगलामुखी की साधना में साधक को भयंकर अनुभूतियां प्राप्त होती है, जिनका समाधान केवल गुरु के पास ही संभव है। अतः साधक को गुरु के सानिध्य में ही गुरु की अनुमति से ही साधना प्रारंभ करनी चाहिए।
तंत्र की देवी
श्री बगलामुखी तंत्र की देवी है यह महाविद्या उर्धवाम्नाय के अनुसार ही उपास्य है। बगला महाविद्या ‘श्री कुल’ से संबंध रखती है। श्री कुल’ की समस्त महाविद्याओं की उपासना अत्यधिक सावधानी, गोपनीयता, इन्द्रियनिग्रह पूर्वक योग्य गुरु के मार्गदर्शन में ही करनी चाहिए। श्री बगलामुखी को ‘ब्रह्मास्त्र विद्या’ के नाम से भी जाना जाता है। शत्रुओं के दमन और विघ्नों का शमन करने में विश्व में इनके समकक्ष कोई अन्य शक्ति नहीं है। इनका उद्भव ही स्तंभन हेतु हुआ था। समस्त लोक इसी शक्ति के प्रभाव से ही स्तंभित हैं। भगवती बगलामुखी विद्या के द्वारा दुष्ट, दुरात्मा एवं शत्रुओं से प्राणियों की रक्षा, दुष्ट ग्रह, राशि, सेना, क्रूर ग्रह, अपमृत्यु, रोग एवं परसेना आक्रमण का पराभव, स्वसेना रक्षा, आत्मरक्षा, विजय, शत्रु पराजय, वेताल आदि शक्तियों का नाश, भैरवादी का प्रशमन, विषनाश, मुष्टिकुक्षिनाश, संहारास्रनाश, शस्त्रस्तम्भन, स्तब्धीकरण, मृतकोत्थान, देशोपद्रवशान्ति, कृत्याविनाश, पञ्चतत्व कृत्याविनाश, शैलस्तम्भ, मृत्युनाश, घटकृत्यानाश, मारण मोहन उच्चाटन वशीकरण स्तम्भन विद्वेषण की सिद्धि एवं दूसरों द्वारा किए गए इन प्रयोगों से रक्षा इत्यादि हजारों प्रयोजनों की सिद्धि प्राप्त होती है। भगवती बगला मंत्रात्मिका है। भगवती बगलामुखी तत्वतः तो अनाम है, अरूप है, अतीन्द्रिय और असंवेद्य है। वह वर्णात्मिका भी है और मंत्रात्मिका भी – ‘मातृकावर्णरूपिणी। वर्ण अर्थात शब्द और शब्द क्या है? शब्द ब्रह्म है।
'अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्वं यदक्षरम् ।
विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः' ।।
मुखशोधन और बगलामुखी
मुखशोधन- तान्त्रिक मर्यादा यह है कि किसी भी देवता का मन्त्र जप करने के पूर्व मुख- शोधन अवश्य कर लेना चाहिए। अपवित्र मुख एवं अपवित्र जीह्वा से पवित्रतम (Holiest) की पूजा एक औद्धत्य है-मर्यादा-हीनता है।
मुखशोधन और बगलामुखी-अशुद्ध जिह्वा से किया हुआ जप सिद्धि के स्थान पर हानिप्रद होता है। जिह्वा की अशुद्धि के अनेक कारण हैं इन्हें मल कहते हैं। ये अनेक प्रकार के हैं, यथा-भोजन का मल, कलह करने का मल या मिथ्या बोलने आदि का मल। जिह्वा का शोधन किये बिना जिह्वा मन्त्रोच्चारण की अधिकारिणी नहीं बन पाती। अतः नियम यह है कि जिस भी देवता का जप करना हो उसके विधानानुसार उस देवता विषयक मन्त्र का दस बार जप करके ही मन्त्र का जप प्रारम्भ करना चाहिए। यही है मुखशोधन क्रिया।
ब्रह्मास्त्रविद्या
यह ब्रह्मास्त्र विद्या तीनों लोकों में दुर्लभ महाविद्या है। यह सब स्तब्धमायामन्त्रात्मिका विद्या है। यह प्रवृत्तिरोधिनी विद्या है। यह मंत्र जीवन विद्या, प्राणीप्रज्ञापहारिका, षट्कर्माधारविद्या है। यह षटप्रयोगमयी, षड्विद्यागमपूजिता, समस्त विद्याओं को अपने प्रभाव से निष्प्रभाव करने वाली तिरस्कृताखिलाविद्या और त्रिशक्त्यात्मिका विद्या है।
स्तम्भन
स्तम्भनात्मिका ब्रह्मास्त्रविद्या के द्वारा ही पवन देवता ने हनुमान जी को सूर्य निगलने से रोका था।
मेघनाद ने लंका में हनुमान को नागपाश में बांधकर उनकी गति को इसी स्तंभन विद्या द्वारा निरुद्ध किया था।
अंगद ने इसी स्तंभन विद्या द्वारा रावण की सभा में अपने पैरों को इस प्रकार
आरोपित किया कि कोई भी वीर उसे हिला तक नहीं सका।
भगवान शिव ने इस विद्या का उपदेश भार्गव परशुराम एवं च्यवन मुनि दोनों को प्रदान किया था।
यही ब्रह्मास्त्र विद्या भार्गव परशुराम ने कर्ण को प्रदान की थी।
च्यवन मुनि ने अश्वनी कुमारों को यज्ञ अधिकार प्रदान करने के अवसर पर, देवराज इंद्र द्वारा वज्रास्त्र का प्रयोग करने की स्थिति में इस ब्रह्मास्त्र विद्या का प्रयोग वज्रास्त्र को रोकने के लिए किया था।
महर्षि अगस्त्य ने इस विद्या का उपदेश भगवान राम को दिया था।
जयद्रथ वध के अवसर पर सूर्य की गति इसी स्तंभन विद्या के प्रभाव से रोक दी गई थी।
श्रीमद् गोविंदपाद की समाधि में विघ्न डालने से रोकने के लिए आचार्य शंकर ने रेवा नदी को इसी विद्या से स्तंभित कर दिया था।
विशेषः ब्रह्मास्त्र विद्या रहस्यात्मक एवं स्तम्भन प्रधान तंत्र की महाविद्या है अतः इसकी उपासना एवं अनुष्ठान के पूर्व साधक को किसी योग्य गुरु से विधिवत दीक्षा ग्रहण कर गुरु के मार्गदर्शन में ही इस विद्या को ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा यह अनर्थकारी सिद्ध होगी।
ब्रह्मास्त्रविद्या की महत्ता
‘स्वविद्यारक्षिणी विद्या स्वमंत्रफलदायिका ।
स्वकीर्तिरक्षिणी विद्या शत्रुसंहारकारिका ।।
परविद्या छेदिनी च परमन्त्रविदारिणी ।
परमंत्रप्रयोगेषु सदा विध्वंसकारिका 11 परानुष्ठानहारिणी परकीर्तिविनाशिनी पराऽऽपन्नाशकृद् विद्या परेषां भ्रमकारिणी ।। ये वा विजयमिच्छन्ति ये वा जन्तुक्ष्यं कलौ। ये वा क्रूरमृगेभ्यश्च जयमिच्छन्ति मानवाः ।। इच्छन्ति शान्तिकर्माणि वश्यं सम्मोहनादिकम् ।
विद्वेषोच्चाटनं पुत्र ! तेनोपास्यस्त्वयं मनुः’ ।।
माँ बगलामुखी की दिव्य शक्तियाँ
स्वविद्या की रक्षिका है।
परविद्या का विनाश करती है।
स्वमंत्र की फलदायिका है।
स्वकीर्ति की रक्षा करती है।
शत्रुओं का संहार करती है।
परविद्या का विनाश करती है।
परमंत्रों का भी विनाश करती है।
परमंत्रों की सहायता से किए गए प्रयोगों का विध्वंस करती है।
परानुष्ठानों का भी विध्वंस करती है।
परकीर्ति का भी विनाश करती है।
दूसरों के द्वारा आरोपित आपदाओं का नाश करती है।
दूसरों को भ्रम में डाल देती है।
विजयेच्छा को पूर्ण करती है।
यह मारण, सम्मोहन, वशीकरण, विद्वेषण, उच्चाटन, आदि क्रियाओं को सिद्ध करती है।
ब्रह्मास्त्र विद्या की प्रभावी विलक्षणता
ऋषिसिद्धाऽमरैश्चैव विद्याधरमहोरगैः ।
यक्षगन्धर्वनागैश्च पिशाचब्रह्मराक्षसैः ।।
पञ्चेन्द्रियैश्च सञ्चारं सद्यो हन्त्यनिशं मनुः।।
पण्डितोऽपण्डितो जीवः किं पुनः क्रौचिंभेदन' ।।
ब्रह्मास्त्रविद्या अपने प्रभाव की दृष्टि से इतनी विलक्षण है कि विद्वान मनुष्यों की तो बात ही क्या वह अपने प्रभाव से सिद्ध, देवता, विद्याधर, महासर्प, यक्ष, ऋषि, गन्धर्व, नाग, पिशाच, ब्रह्मराक्षस एवं समस्त इंद्रिय सञ्चारों एवं इंद्रियसञ्चरित समस्त जीवों के प्रभावों को नष्ट कर देती है।
भगवती मां बगलामुखीः एक परिचय
महाविद्या का नाम :
१. वल्गामुखी, २. बगलामुखी, ३ पीताम्बरा, ४. बगला, ५. ब्रह्मास्त्रविद्या।
कुल धर्म : ‘श्री कुल’
आचार: वाम एवं दक्षिण ।
विद्या: दिवा दक्षिणसाध्यापि, निशि वामप्रसादना।
शिव : त्र्यम्बक ।
गणेश: हरिद्रा गणपति।
भैरव : आनन्द भैरव, अन्य मतानुसार मृत्युञ्जय शिव ।
यक्षिणी: विडालिका नाम्नी रक्षिणी।
कुल्लुका : इस विद्या की कुल्लूका ॐ छूक्ष्त्रौं’ है, जिसे दस बार जप करके शिर में न्यासित किया जाता है।
सेतु मन्त्र: ‘ह्रीं स्वाहा’ इसे कंठ पर दस बार जपना चाहिए।
महासेतु: साधना काल में जप से पूर्व महासेतु का जप किया जाता है। इस महाविद्या का महासेतु ‘स्त्री’ है। विशुद्धि चक्र में इसका जाप दस बार किया जाता है।
कवचसेतु : इसको मत्रसेतु भी कहा जाता है। जप प्रारंभ करने से पूर्व इसका जप एक हजार बार किया जाता है। ब्राह्मण व क्षत्रियों के लिए ‘प्रणव’, वैश्यों के लिए ‘फट’ तथा शूद्रों के लिए ‘ह्रीं’ कवच सेतु है।
निर्वाण: ‘हू ह्रीं श्रीं’ से सम्पुटित मूल मंत्र का जाप ही इसकी निर्वाण विद्या है। पुरश्चरण एवं विशेष पर्वों पर ही इसका जप करणीय है, नित्य नहीं।
बंधन : किसी आसुरी शक्ति अथवा विपरीत शक्ति का का प्रवेश रोकने के लिए ‘ऐ
ह्रीं ह्रीं ऐं’ इस मंत्र का एक हजार बार जब किया जाता है।
मुद्रा : इस विद्या में ‘योनि’ मुद्रा का प्रयोग किया जाता है।
प्राणायाम : उत्तम परिणाम हेतु साधना से पूर्व दो मूल मंत्रों से रेचक, चार मूल
मंत्रों से पूरक, दो मूल मंत्रों से कुभक क्रिया करनी चाहिए।
मुख शोधन : नित्य प्रातः काल ‘ऐं ह्रीं ऐं’ से मुख शोधन करना चाहिए। दातुन
करने के उपरांत अपनी जिह्वा पर अनामिका से इसे 10 बार जपना चाहिए।
दीपन: मूल मंत्र को योनिबीज ‘ई’ से सम्पुटित करके सात बार जपना चाहिए।
पुरश्चरण एवं विशेष पर्वो पर ही इसका जप करणीय है, नित्य नहीं। शापोद्धार : ॐ हलीं बगले! रुद्रशाप विमोचन विमोचय ॐ हलीं स्वाहा’
मंत्र का 10 बार जाप करना चाहिए। पुरश्चरण एवं विशेष पर्वो पर ही इसका जप
करणीय है।
उत्कीलन मंत्र के आदि में ॐ हली स्वाहा’ मंत्र का जप 10 बार करना चाहिए। पुरश्चरण एवं विशेष पर्वो पर ही इसका जप करणीय है।
भाव : वीरभाव एवं दिव्यभाव। प्रारम्भ वीरभाव से करणीय है। तुरीय आश्रम प्राप्त होने पर दिव्यभाव प्राप्त हो जाता है।
क्रम : सौभाग्य क्रम (कुलार्णवतन्त्र के अनुरूप)
महाविद्या बगला की साधना
साधना से पूर्व ध्यान देने योग्य मुख्य बिंदु :
साधक को सद्गुरु के मुख से उपदेश ग्रहण करके क्रम तारतम्य के अनुरूप साधना करनी चाहिए।
साधक को कुलाचर का पालन करते हुए कुलपद्धति के अनुरूप गुरु दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए।
कुलमार्ग के अनुरूप मंत्र ग्रहण एवं ततदनुरुप मंत्र प्रयोग ही शास्त्र अनुशासन है।
साधक द्वारा पहने गए वस्त्र, माला, साधक का आसन, देवी को समर्पित करने हेतु लिए गए फूल, भोजन-सामग्री, फल, समस्त नैवेद्य, अधोवस्त्र, उत्तरीय तथा साधनास्थल सभी पीले रंग के होने चाहिए। क्योंकि देवी स्वतः पीतवर्णा, पीताम्बरा, पीतमालावृता, पीताभरणा इत्यादि है।
'सुवर्णाभरणां देवीं पीतमाल्याम्बरावृताम् ।
ब्रह्मास्त्रविद्यां बगलां, वैरिणां स्तम्भिनीं भजे' ।।
'पीतवाससं पीतालंकारसम्पन्नां दृढ़पीनोन्नतपयोधरयुग्माढ्याम् '।
दीक्षा अनिवार्य है :
'दीक्षामार्ग विना मंत्रं शैवं शाक्तों च वैष्णवम् ।
यो जपेत् तं दहत्याशु देवता च जुगुप्स्यति ।।
दीक्षाविधिं विना मंत्र यो जपेत कोटिकोटिशः ।
न स सिद्धिमवाप्नोति सिन्धुसैकतवर्णवत् ।।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन दीक्षा कुलगुरोर्मुखात् ।
उपदेशक्रमेणैव मन्त्रग्रहणमादरात् '।।
दीक्षा अनिवार्य है :यह विद्या ‘श्रीविद्या’ एवं वैष्णव तेज से आच्छादित है अतः बगला को भगवती महात्रिपुरसुंदरी से पूर्णतः पृथक मानकर उपासना नहीं करनी चाहिए।
मां बगला का प्रसिद्ध मंत्र 36 अक्षरों का है अतः इस मंत्र का पुरश्चरण 3600 या 36000 जप से निष्पादित होता है। ‘ह्रीं’ (स्तब्धमाया) भगवती का एकाक्षर बीजमंत्र है। इसका अशप्त रूप ह्रीं है। इसी का प्रयोग करके (इसी के द्वारा ‘कृत्या’ का प्रयोग करके) देवता दानवों पर प्रहार करते थे। यही विद्या है- भ्रामरी, स्तम्भिनी, क्षोभिणी, पीताम्बरा देवी, त्रिनेत्री, रौद्ररूपिणी, ब्रह्मास्त्रविद्या इत्यादि ।
साधना की सामान्य प्रक्रिया
सर्वप्रथम किसी शुभ तिथि का सन्धान करके सोने, चांदी या तांबे के पत्तर पर बगलामुखी यंत्र की रचना की जानी चाहिए। यंत्र उभरे रेखांकन द्वारा निर्मित होना चाहिए। यन्त्र तैयार हो जाए तो उसकी प्राण प्रतिष्ठा करके उसकी शास्त्रोक्त विधि से पूजा करनी चाहिए।
साधना के अग्रिम सोपान
यंत्र की शास्त्रोक्त विधि से प्राणप्रतिष्ठा करने के उपरांत उसे अपने पूजागृह या घर के किसी एकांत एवं पवित्र स्थान में लकड़ी की चौकी पर पीत वस्त्र पर स्थापित करना चाहिए। साथ ही भगवती बगलामुखी का चित्र भी यंत्र के साथ स्थापित करना चाहिए। यंत्र स्थापना के अनन्तर उसकी प्रतिदिन पूजा की जानी चाहिए एवं मंत्र जप भी किया जाना चाहिए।
जप आरम्भ के समय सर्वप्रथम बगलामुखी देवी का विनियोग करना चाहिए। इसके लिए दाएं हाथ में जल लेकर निम्नलिखित मंत्र पढ़ते हुए उसे चित्र एवं यंत्र के समक्ष छोड़ना चाहिए।
विनियोग मंत्र
ॐ अस्य श्री बगलामुखीमहाविद्यामन्त्रस्य नारद ऋषिः,
त्रिष्टुप् छन्दः, बगलामुखी महाविद्या देवता, ह्रीं बीजम् स्वाहा शक्तिः,
ॐ कीलकं ममाभीष्टसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः' ।।
न्यास-विधान
विनियोगोपरान्त ऋष्यादिन्यास, करन्यास, हृदयादिन्यास आदि करके देवी भगवती बगलामुखी का ध्यान करना चाहिए।
ध्यान का स्वरूप
'मध्यमे सुधाब्धिमणिमण्डपरत्नवेद्यां सिद्धासनो परिगतां परिपीतवर्णाम्।
पीताम्बराभरणमाल्यविभूषिताङ्गीं देवीं भजामि धृतमुद्गवैरिजिह्वाम् '।।
जिह्वाग्रमादाय करेण देवीं वामेन शत्रून् परिपीडयन्तीम् ।
गदाभिघातेन च दक्षिणेन, पीताम्बराढ्यां द्विभुजां नमामि' ।।
ध्यान
मंत्र द्वारा भगवती बगलामुखी मंत्र का जप प्रारंभ करना चाहिए। भगवती बगलामुखी के मंत्र का जप रुद्राक्ष की माला से किया जाए तो अधिक उत्कृष्ट होगा। जपोपरांत तर्पण, मार्जन, हवन एवं ब्राह्मण भोजन आदि अंगों की पूर्ति भी आवश्यक है।।
कवच तांत्रिक साधना में ‘कवच’ उसी प्रकार आवश्यक है जिस प्रकार युद्ध के मैदान में वक्ष पर धारण किया हुआ कवच एवं शीश पर धारण की हुआ शिरस्राण। युद्ध में यह मात्र रक्षा करता है किंतु साधना क्षेत्र का कवच केवल रक्षा ही नहीं करता प्रत्युत वह दैवी विभूतियां भी प्रदान करता है।
भगवती बगलामुखी का कवच
'ॐ ह्रीं में हृदयं पातु पादौ श्रीबगलामुखी ।
ललाटं सत्यं पातु दुष्टग्रहनिवारिणी ।।
रसनां पातु कौमारी भैरवी चक्षुषोर्मम ।
कटी पृष्ठे महेशानी कर्णी शङ्करभामिनी ।।
वर्जितानि तु स्थानानि यानि च कवचेन हि ।
तानि सर्वाणि में देवी सततं पातु स्तम्भिनी' ।।
भगवती बगलामुखी का मंत्र :
'ॐ ह्रीं बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय,
जिह्वां कीलय बुद्धिविनाशय ह्रीं ॐ स्वाहा'।
नियम
साधना करते समय साधक पीले वस्त्र धारण करें। आसान भी पीले रंग का होना चाहिए। पीले रंग का ऊनी आसन अधिक उत्तम। भगवती को अर्पित करने के लिए पीले पुष्प, पीला चंदन, पीली माला एवं नैवेद्य भी पीला होना चाहिए।
ध्यान के उपरान्त किए जाने वाले मंत्र जप के पूर्व दस बार ॐ ह्रीं’ का जप कर वाणी का शोधन करना चाहिए।
भगवती के मंत्र का उपांशु या मानसिक दोनों प्रकार से जप किया जा सकता है।
जिस समय मंत्र जप किया जाए उसे समय यन्त्र के सम्मुख घृत का दीपक अनवरत जलते रहना चाहिए।
साधना काल में ब्रह्मचर्य, भूमिशयन, वाणीसंयम, मनःसंयम, चर्या संयम, नियमितता, भक्तिभाव, उत्साह एवं अन्य सात्विक भाव का होना अत्यावश्यक है।
साधना की गोपनीयता
साधक को निर्भय होकर साधना करनी चाहिए।
साधक को साधना काल में होने वाली आध्यात्मिक अनुभूतियों को अत्यंत गुप्त
रखना चाहिए।
साधक अपनी साधना काल की समस्त जिज्ञासाओं का समाधान अपने गुरु से प्राप्त कर सकता है।
साधना में गोपनीयता साधक की साधना को अधिक शक्ति प्रदान करती है।
गोपनीयता को मंग करने से साधक की शक्ति क्षीण हो जाती है।
कभी-कभी साधक को इसका दुष्परिणाम भी भोगना पड़ता है।
भगवती बगलामुखी की तंत्रोक्त दीपदान (मेरुतंत्रोक्त पद्धति)
दीपदान का उचित समय साधक को चाहिए वह प्रातः शुभ मुहूर्त में उठे और दीपदान के लिए उपयोगी सामग्री एकत्रित करे।
सामग्री: शुद्ध मुद्गर के बीज, दीप निर्माण, छत्तीस तंतुओं की वर्तिका का निर्माण, गोघृत, कुसुम पुष्प अथवा केसर ।
साधक की तैयारी सर्वप्रथम साधक क्षमा धारण कर (क्षमा व्रत का पालन करते हुए), पवित्रता के साथ हरिद्रा रञ्जित वसन धारण करे, पीतासन पर उत्तराचिमुखी होकर भगवती का ध्यान कर पीतमाला ग्रहण करे, मस्तक पर पीला चंदन लगाकर बैठ जाए। हल्दी से लिपी पृथ्वी पर त्रिकोण बनाकर उस पर गौघृत भरा दीपक स्थापित कर दीपक को पूर्ण श्रद्धा भाव के साथ प्रज्वलित करे।
दीप संकल्प एवं जप साधक को चाहिए कि वह मां भगवती बगला के मूल मंत्र का उच्चारण एवं मूल मंत्र से ही न्यासपूर्वक दीप का संकल्प करके रात्रि में एक मास पर्यन्त बगलामुखी का जाप करे।
'असाध्यान् साधयेत् कामान् वशयेदात्मनो रिपून् ।
क्षोभयेत् स्तम्भयेच्चापि द्वेषयेत् प्रक्षिपेदति' ।।
सिद्धि: यह साधना नियम पूर्वक करने पर साधक के असाध्य कार्य यथा-शत्रु- वशीकरण, स्तम्मन, द्वेषण, शत्रु नाश आदि कार्य तत्काल सिद्ध हो जाते हैं।
विशेष: तांत्रिक साधनाओं, अनुष्ठानों एवं संकल्पित साधना विधानों में नियमातिक्रम मृत्यु का कारण भी बन सकता है अथवा अक्षम्य अपराध बनकर असह्य हानियां कर सकता है। इस प्रकार की हानियों से रक्षा हेतु साधकों को कवच का पाठ अनिवार्य रूप से करना चाहिए।
बगला महाविद्या के प्रयोगात्मक विशिष्ट उद्देश्य
क्रूर कृत्या का निवारण करने के लिए।
समस्त कर्मों का ध्वंस हो जाने पर।
जातिस्तम्भ एवं मनः स्तम्भ की अवस्था में।
अष्ट वेतालों के शमन के लिए।
शांति, स्तम्भन एवं जल रक्षण के लिए।
देवता-दानव- दैत्यादि के उपद्रवों को शमित करने के लिए।
उत्पन्न भ्रमपूर्ण परिस्थिति के विनाश के लिए।
पूतना- विनाश एवं सारे उपद्रवों के ध्वंस के लिए।
कारागृह से मुक्ति के लिए।
प्राण- संकट उपस्थित होने पर उसके विनाश के लिए।
मुष्टि प्रयोग के ध्वंश के लिए।
छत्तीस प्रकार के बाणों के नाश के लिए।
महाशस्रास के प्रयोग से रक्षा के लिए।
गति-मति- सूर्य अग्नि को स्तम्भित करने के लिए।
अनेक प्रकार के रोगों को निराकृत करने के लिए।
रण एवं राजकुल में उत्पन्न अशांति को हटाने हेतु एवं शांति स्थापित करने के लिए।
दूसरों के द्वारा किए गए विभिन्न प्रयोगों से रक्षा करने के लिए।
दूसरों के द्वारा प्रयुक्त या दूसरों पर प्रयुक्त कृत्या के प्रभावों को नष्ट करने के लिए।
कृत्या के द्वारा प्रयुक्त विषप्रयोग निराकृत करने के लिए।
साधक को समस्त दोषों के निराकरण के लिए निम्नांकित पद्धति से अधोवर्ती
बगला साधना-विधि का नियमानुसार अनुसरण करना चाहिए।
भगवती बगलामुखी की उपासना से प्राप्त उपलब्धियां
भगवती बगलामुखी का विधि विधान से किए गए ध्यान एवं मंत्रजप से निम्नांकित फल प्राप्त होता है- १. स्तम्भेश्वरत्व की प्राप्ति। २ सर्वेश्वरत्व।३ सैन्य स्तम्भन की शक्ति। ४. सूर्य की गति का स्तंभन। ५. संपूर्ण वायु का स्तंभन। ६. दिन का आकर्षण । ७. सर्वमन्त्रेश्वरत्व । ८. सर्वविद्येश्वरत्व एवं ९. त्रैलोक्यस्तम्भन । भगवती मां बगला की उपासना में उनके प्रत्येक मंत्र के साथ हवन का विधान है।
उपासना में हवनकुण्ड - विधान
मां भगवती बगलामुखी की उपासना में विभिन्न प्रयोजनों के अनुरूप हवन कुण्डों के स्वरूपों में भिन्नता आवश्यक मानी गई है-
त्रिकोणाकार कुण्ड में हवन वशीकरण, सम्मोहन, व्यापार संवर्धन, द्रव्य संग्रह, कीर्ति की प्राप्ति, स्तम्मन इंद्रियों के वशीकरण के लिए त्रिकोणाकार कुण्ड में आवश्यक समस्त सामग्री एवं दिव्य गन्धों से हवन करना चाहिए।
वर्तुल कुण्ड में हवन एक ही आकार के कुण्ड में सर्वाभीष्टों की सिद्धि नहीं होती। विद्वेषण नामक आभिचारिक कर्म की सिद्धि के लिए वर्तुल कुण्ड के मध्य में हवन करना चाहिए।
षटकोणात्मक कुंड में हवन यदि साधक को उच्च्चाटन नामक आभिचारिक कृत्य निष्पादित करना हो तो उसे षटकोणात्मक कुण्ड में हवन करना चाहिए।
अष्टकोणात्मक कुंड में हवन मारण नामक आभिचारिक कृत्या प्रयोग हेतु अष्टकोणात्मक कुण्ड में हवन किया जाता है।
विशेष : प्रत्येक आभिचारिक कर्म के निष्पादनार्थ तत्तत्कर्मानुसार कुण्ड का एवं
हव्य द्रव्य का रूप भी बदल जाता है। यथा-
योनी कुण्ड: योग्य संतान प्राप्ति के लिए।
अद्ध चंद्राकार कुण्ड पारिवारिक सुख एवं शांति के लिए।
त्रिकोण कुण्ड: शत्रुओं पर विजय प्राप्ति के लिए।
वृत्त कुण्ड : राष्ट्र में शांति एवं जनकल्याण के लिए।
सम अष्टास्त्र कुण्ड : रोग निवारण के लिए।
सम षडास्त्र कुण्ड: शत्रुओं में आपसी युद्ध हेतु।
चतुष कोणास्त्र कुण्ड समस्त कार्यों की सिद्धि के लिए।
पदम कुण्ड : मारण प्रयोग एवं तीव्रतम प्रयोगों से सुरक्षा के लिए।
'कवचं प्रपठेदादौ स्तोत्रं पुनश्चरेत्'।
मां भगवती बगलामुखी की साधना क्रम में सर्वप्रथम कवच का पाठ करना चाहिए तदुपरांत स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। मा भगवती बगलामुखी की उपासना में कुण्ड-निर्माण, कलश स्थापना, गणपति पूजन, मण्डल निर्माण, तर्पण, मार्जन, अभिषेक, दक्षिणा, विप्र भोजन, हवन, यंत्रप्रोक्षण इत्यादि सभी कर्मकाण्डीय, उपासनायोगी अंग स्वीकृत है।
मां पीताम्बरा भगवती के ध्यान से प्राप्त फल
'चतुर्भुजां त्रिनयनां कमलासनसंस्थिताम् ।
त्रिशूलं पानपात्रं च गदां जिह्वां च विभ्रतीम् ।।
विम्बोष्ठां कम्बुकण्ठीं च समगीनपयोधराम् ।
पीताम्बरां मदाघूर्णा ध्यायेद् ब्रह्मास्रदेवताम्' ।।
साधक को अमृत तत्व की प्राप्ति होती है।
साधक समस्त सिद्धियां अर्जित कर लेता है।
साधक समस्त सिद्धियों का स्वामी बन जाता है।
साधक जीवन मुक्त हो जाता है।
साधक जगत की सृष्टि, स्थिति, एवं संधार तीनों व्यापारों का निष्पादक बन जाता है।
साधक सौभाग्यार्धन द्वारा अर्चा कर सर्वज्ञ हो जाता है।
बगलासहस्त्रनाम नियमानुसार पाठ द्वारा फल की प्राप्ति
प्रातः काले च मध्याह्ने संध्याकाले च पार्वती।
एकचित्तः पठेदेतत् सर्वसिद्धिर्भविष्यति ।।
मोक्षार्थी को मोक्ष की प्राप्ति। धनार्थि को धन की प्राप्ति। विद्यार्थी को तर्क एवं विद्या – व्याकरण शास्त्र में नैपुण्य की प्राप्ति भी इसी पाठ को नियमित करने से अनायास हो जाती है। इतना ही नहीं यदि कोई शत्रु अपकार करना चाहे तो उसका भी विनाश हो जाता है।
कवच का फल साधक को शत्रु, चौर्य, हिंसक जानवरों का भय नहीं रहता। कवच धारी मनुष्य शंकर के सदृश्य होता है।
शतनाम पाठ का फल बगलाशतनाम पाठी साधक समस्त शत्रुओं एवं भूत-प्रेत-पिशाच, ग्रह दोष इत्यादि कष्टों से मुक्त हो जाता है। अनेक विद्याएं एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति कर अन्ततोगत्वा भोग एवं मोक्ष दोनों को प्राप्त करता है।
सहस्त्रनाम पाठ का फल सहस्त्र नाम का पाठ करने वाला साधक शक्तियुक्त, शिव के समान, धर्मार्थभोगी, मोक्षपति, देवसानिध्य और प्रमोवया कीर्ति प्राप्त करता है।
बगलामुखीब्रह्मास्त्र (नारद- विरचित) के विधिवत पाठ एवं सिद्ध यंत्र धारण करने का फल बगलामुखीब्रह्मास्त्र के पाठ एवं सिद्ध यंत्र को विधिवत धारण करने से सर्व वशीकरण, समस्त सिद्धियां की प्राप्ति, विद्या, लक्ष्मी, सौभाग्य, पुत्र, संपवाएं, इष्ट एवं सम्मान आदि की प्राप्ति होती है।
दीक्षा-विधान और बगला महाविद्या
ब्रह्मास्त्रविद्या या बगलामहाविद्या के श्रेष्ठतम ग्रन्थ सांख्यायनतल में कहा गया है कि दीक्षा ग्रहणा किये बिना ‘बगलामहाविद्या’ के किसी भी अनुष्ठान, जप, होम, यज्ञ आदि क्रिया में प्रवेश निषिद्ध है। सांख्यायनतन्त्र के अनुसार-
'पुस्तके लिखितान् मत्रान् अवलोक्य जपन्ति ये।
स जीवन्नेव चाण्डालो मृतः श्वानो भविष्यति' ।।
जो लोग पुस्तकों के लिखे मन्त्र को पढ़कर या देखकर इसका जप करते हैं वे लोग जोवित अवस्था में ही चाण्डाल हैं तथा मरने के बाद भी उनकी सदगति, नहीं होती, क्योंकि तब वे इस अपराध या पाप के कारण श्वान की योनि में जन्म लेते हैं।
दीक्षा-मार्ग विना मन्त्र शैवं शाक्त च वैष्णवम्।
यो जपेत् तं दहत्याशु देवता च जुगुप्स्यति।।
दीक्षाविधिं विना मन्त्र यो जपेत् कोटिकोटिशः।
न स सिद्धिमवाप्नोति सिन्धुसेकतवर्षत् ।।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन दीक्षाकुलगुरोर्मुखात्।
उपदेशक्रमेणैव मन्त्रगहणमादरात् ।।
(२) बिना दीक्षा ग्रहण किये हुए कोई भी व्यक्ति जो (शैव, शाक्त या वैष्णव सम्प्रदाय के) मन्त्रों का जप करता है उसे वह मन्त्र ही जला डालता है तथा मन्त्रनिष्ठ देवता उस अदीक्षित जापक से प्रेम करने की अपेक्षा घृणा करता है।
(३) जो भी साधक बिना दीक्षा के जप करता है वह भले ही करोड़ों जप क्यों न कर डाले किन्तु वह समुद्र के किनारे स्थित बालू के कणों की गिनती के बराबर अनन्त वर्षों तक भी साधना क्यों न करता रह जाय किन्तु वह कभी सिद्धि नहीं प्राप्त कर सकता।
(४) औचित्य यहीं है कि भगवती की उपासना क्रिया में प्रवेश करने के पूर्व ही किसी
दीक्षित कुलगुरु के श्रीमुख से साम्प्रदायिक उपदेश क्रम की पद्धति के अनुसार आदर सहित मन्त्र ग्रहण करके (दीक्षित होकर) तभी ब्रह्मास्त्रविद्या की उपासना की दिशा में अग्रपद हो। ब्रह्मास्त्रविद्या रहस्यात्मक एवं स्तम्भन-प्रधान तान्त्रिकी महाविद्या है अतः इसकी उपासना एवं अनुष्ठान के पूर्व साधक को किसी कुलगुरु से दीक्षा ग्रहण करना अनिवार्य है।
जप साधना में नक्षत्रों की भूमिका
ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से विचार किया जाय तो विभिन्न नक्षत्रों में निष्पादित जप के फलों में परस्पर भिन्नता है, यथा-
सोपचार पूजन का विधान
भगवती मां बगलामुखी की उपासना-प्रक्रिया में सोपचार पूजन का विधान है।
उपचार कितने होते हैं? और किस स्वरूप के है-
पञ्चोपचार पूजनः गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य।
दशोपचार पूजनः गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, पाद्य, अर्धय, आचमन,
मधुपर्क, पुनराचमन ।
षोडशोपचार पूजनः आवाहन, आसन, पाद्य, अर्धय, आचमन, स्नान, वस्त्र (यज्ञोपवीत), गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, आचमन, ताम्बूल, दक्षिणा।
अष्टदशोपचार पूजनः षोडशोपचार, स्वागत एवं आभूषण।
मानसोपचार पूजन इसमें साधक द्वारा स्नान, गंध आदि सभी उपचारों का ध्यान मंत्र से उपयोग किया जाता है।
शुभ संकल्प ‘तन्मे मनः शिवसंक्ल्पमस्तु ।